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देवता: इन्द्र: ऋषि: वत्सः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

वि चि॑द्वृ॒त्रस्य॒ दोध॑तो॒ वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा । शिरो॑ बिभेद वृ॒ष्णिना॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi cid vṛtrasya dodhato vajreṇa śataparvaṇā | śiro bibheda vṛṣṇinā ||

पद पाठ

वि । चि॒त् । वृ॒त्रस्य॑ । दोध॑तः । वज्रे॑ण । श॒तऽप॑र्वणा । शिरः॑ । बि॒भे॒द॒ । वृ॒ष्णिना॑ ॥ ८.६.६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:6» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:6


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही स्तुत होता है।

पदार्थान्वयभाषाः - अन्य प्रकार से इसकी महिमा प्रस्तुत होती है। ईश्वर सर्वविघ्नों का विनाश करता है, यह शिक्षा इससे देते हैं, यथा−(वृत्रस्य१+चित्) अवरोधक उपद्रवकारी (दोधतः) स्व आकृति से और स्वव्यापारों से कँपानेवाले भयङ्कर चौरादि दुष्टों का भी (शिरः) शिर को वह (शतपर्वणा) अनेक धारायुक्त (वृष्णिना) बलवान् (वज्रेण२) ज्ञानरूप वज्र से (वि+बिभेद) काट देता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! यदि आप इन्द्र की सुमति आज्ञा में रहेंगे, तब आपके सर्व विघ्नों का वह विनाश कर देगा, अतः उसकी आज्ञा का पालन करते हुए उसकी सेवा करो ॥६॥
टिप्पणी: १−वृत्र=अवरोधक, अन्धकार, अज्ञान, पर्वत मेघ और समुद्र आदिकों का नाम वृत्र है। यहाँ इस ऋचा से परमात्मा की महती शक्ति दिखलाई जाती है। हम मनुष्यों के अनेक अवरोधक हैं। हिमालय लाँघकर पार होना कठिन है, क्योंकि हिम के शैत्य को मनुष्य नहीं सह सकता, समुद्र पार करना दुष्कर है। यद्यपि नाना साधन द्वारा इन हिमालय आदिकों को पार कर भी सकते हैं, तथापि पृथिवी पर से अन्यान्य नक्षत्रादिलोक अथवा चन्द्रलोक गमन करना अतिशय कठिन है। अभी तक कोई साधन इसके लिये नहीं आविष्कृत हुए हैं। यह जगत् कहाँ तक विस्तीर्ण है, इसका पता जीव नहीं लगा सकते। हम यहाँ से दरभंगा के प्राणियों को नहीं देख सकते। विविध सूर्य्यों की दशाओं का पता नहीं लगा सकते। अन्य पुरुष का अन्तःकरण कैसा है, नहीं जान सकते। कल क्या होगा, यह हम मनुष्यों से गुप्त है। इत्यादि शतशः बाधाएँ हम प्राणियों के मध्य विद्यमान हैं, किन्तु ईश्वर के निकट कोई बाधा नहीं। एकान्त में हम दो मनुष्य जो बातें करेंगे, परमात्मा उसे जान लेगा। यदि हम किसी को मारने के लिये मन में ही विचार करते हैं, तो वह भी उससे गुप्त न होगा। अनन्त जीवों के कर्त्तव्य सदा उसे विदित होते रहते हैं। यदि कोई बुद्धिमान् इस सृष्टि की रचना पर ही ध्यान देवे, तो महामहाऽऽश्चर्य प्रतीत होगा और अन्त न मिलेगा, इस कारण कहा गया है कि उसके निकट वृत्र कुछ नहीं कर सकता। वृत्रासुर और इन्द्र के सम्बन्ध में जो नाना उपाख्यान संस्कृत साहित्य में दृष्टिगोचर होते हैं, उसका कारण वेद के अर्थ का सत्यरूप से भान न होना है। इसी प्रकार नमुचि, शम्बर, धुनि, चुमुरि, बल आदि की आख्यायिका का विचार है ॥ २−वज्र−इन्द्र के साथ सदा वज्र का निरूपण आता है। यहाँ इतना जानना चाहिये कि जो शासक होता है, वह अवश्य दण्डविधायक होगा। विना दण्ड से शासन का कार्य सिद्ध नहीं होता। इसमें सन्देह नहीं कि परमात्मा महान् शासक है, उसके लिये भी कोई दण्ड होना चाहिये। मानो, मेघ से जो वज्र पतित होता है, वही उसका दण्ड है, किन्तु परमात्मा का कोई अन्य दण्ड नहीं। उसका न्याय, जो सर्वत्र सब जीवों पर प्रकटित है, वही मानो उसका दण्ड है। इति संक्षेपतः ॥६॥
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आर्यमुनि

अब परमात्मा को अज्ञान का निवारक कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - परमात्मा (दोधतः, वृत्रस्य, चित्) संसार को कँपाते हुए आवरक अज्ञान के (शिरः) शिर को (शतपर्वणा) सैकड़ों कोटिवाली (वृष्णिना) बलवान् (वज्रेण) अपनी शक्ति से (बिभेद) छिन्न-भिन्न करता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - वह परमपिता परमात्मा अज्ञान का नाशक और ज्ञान का प्रसारक है अर्थात् वह सर्वरक्षक परमात्मा विद्यारूप शक्ति से अविद्यारूप अज्ञान का नाश करके पुरुषों को सुखप्रद होता है, इसलिये उचित है कि सुख की कामनावाला पुरुष निरन्तर विद्या में रत रहे, ताकि विद्यावृद्धि द्वारा ज्ञान का प्रकाश होकर अज्ञान का नाश हो ॥६॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनः स एव स्तूयते।

पदार्थान्वयभाषाः - प्रकारान्तरेणास्य महिमा प्रस्तूयते। ईश्वरः सर्वान् विघ्नान् विनाशयतीति शिक्षते। चिच्छब्दोऽप्यर्थे। वृत्रस्य चित्=वृत्रस्यापि अवरोधकस्यापि। दोधतः=स्वकृत्या स्वव्यापारैश्चात्यन्तं कम्पयतो दुष्टस्य विघ्नस्य। शिरो मूर्धानम्। शतपर्वणा=शतं शतसंख्याकानि अनेकानि पर्वाणि धारा यस्य तादृशेन। वृष्णिना=वीर्य्यवता। वज्रेण=ज्ञानात्मना। वि। बिभेद=विभिन्नवान् ॥६॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मनोऽज्ञाननिवारकत्वं कथ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - य इन्द्रः परमात्मा (दोधतः, वृत्रस्य, चित्) जगत्कम्पयतः अज्ञानस्यापि (शतपर्वणा) अनेककोटिमता (वृष्णिना) बलिना (वज्रेण) स्वशक्त्या (शिरः, बिभेद) मूर्धानं चिच्छेद ॥६॥